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अंतर्निहित चेतना ही परमात्मा है, मनुष्य वही सोच सकता है, जो इस ब्रम्हाण में घटित हो गया हो या होगा। आकांक्षाएं ही आविष्कारों की जन्मदाता हैं। पानी की प्यास तो ग्रंथियों द्वारा उत्पन्न होती है उसको तो पानी पीकर शांत किया जा सकता है, परन्तु आत्मा की प्यास परम आत्मा अर्थात "परमात्मा" (आत्मा की शिखर अवस्था) पर पहुँच कर ही शांत होती है इस जमीन पर बुद्ध हुए हैं, महावीर हुए हैं, क्राइस्ट हुए हैं, कृष्ण हुए हैं, राम हुए, मोहम्मद हुए। इन हजारों लोगों के मार्ग बस सांसारिक चेतना से अलग हटकर आत्मिक चेतना की ओर थे।
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द्वौ अम्भसि निवेष्टव्यौ गले बद्ध्वा दृढां शिलाम् ! धनवन्तम् अदातारम् दरिद्रं च अतपस्विनम् !!
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