पागलपन ही है उद्देश्यपूर्ण जीवन का आधार

Kartik SelKartik Sel
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एक गांव में, मैंने सुना, दो आदमी पागल थे। ऐसा गांव के लोग समझते थे कि दोनों पागल हैं। एक दिन बाजार भरा हुआ था गांव का, और एक रास्ते पर जहां काफी भीड़ थी, वे दोनों पागल भी आए। उन दोनों पागलों ने एक-दूसरे को झुक कर नमस्कार किया। एक युवक खड़ा हुआ देखता था, उसे बड़ी हैरानी हुई, लोग गांव के जानते थे कि वे दोनों पागल हैं। उसे यह हैरानी हुई कि उन दोनों पागलों में इतना होश है कि एक-दूसरे को नमस्कार करते हैं। उसे थोड़ा शक हुआ कि ये पागल हैं भी या नहीं? उन दो पागलों में से एक के पीछे वह युवक चला गया। वह पागल एक मस्जिद के पास पड़ा रहता था। वह युवक गया और उसने पूछा कि मैं यह पूछने आया हूं कि आपने उस भीड़ में उसी पागल को नमस्कार क्यों किया? क्या आप पहचानते हैं? क्या पागलों की भी कोई जाति-बिरादरी है? क्या पागलों का भी कोई संबंध होता है? क्या पागल भी आपस में किसी भांति एक-दूसरे के मित्र हैं? क्या पागलों का भी अपना कोई समाज है? उस भीड़ में इतने लोग थे, आपने उस पागल को नमस्कार किया और उस पागल ने भी आपको ही नमस्कार किया !

वह बूढ़ा पागल हंसने लगा। वह उठा और उस युवक को उसने अपनी बांहों में भर लिया और अपनी छाती से लगा लिया। और उससे कहा कि मेरी आंखो में देखो। युवक तो पहले घबड़ा भी गया। इस उत्तर की कोई अपेक्षा नहीं थी कि वह उसे छाती में दबा लेगा और उससे कहेगा मेरी आंखों में देखो !

उस युवक ने पहली दफा उसकी आंखों में देखा। उसकी आंखों में देख कर वह हैरान हो गया! वे आंखें कुछ अलग थीं। वे कोई सामान्य आदमी की आंखें नहीं थीं। वे किसी सोए हुए आदमी की आंखें नहीं थीं। उसने उन आंखों को देखा। और उस बूढ़े ने कहा कि अब तुम जाओ और उस भीड़ में जो लोग हैं, उनकी भी आंखों को देखना । और वह जिस पागल को मैंने नमस्कार किया था, उसकी भी आंखों को देखना।

वह युवक गया। उसने अनेक लोगों की आंखों में गौर से देखा। और वह उस पागल के पास भी गया और उसकी आंखों में भी देखा। वह वापस आया। उसने कहाः मैं हैरान हो गया, कि ये दो आंखें भर जगी हुई मालूम पड़ती हैं, बाकी सारी आंखें सोई हुई मालूम पड़ती हैं! बाकी लोग ऐसे चल रहे हैं जैसे सोए हुए हों। बाकी लोग देखते हुए भी ऐसे मालूम होते हैं जैसे उनका ध्यान कहीं और है। देख रहे हैं, लेकिन देख नहीं रहे हैं। चल रहे हैं, लेकिन चल नहीं रहे हैं। जैसे कोई सपने में चलता हो । जैसे सपने में चलने की बीमारी होती है। लोग सपने में उठते हैं और चलते हैं। जैसी धुंधली उनकी आंखें होती हैं, जैसी सोई हुई और मूच्छित उनकी आंखें होती हैं, ऐसी ही सारे लोगों की आंखें हैं--सिर्फ उस पागल को छोड़ कर ।

तो उस वृद्ध ने कहा: मैंने उसे नमस्कार किया, कुछ सोच कर नमस्कार किया।

गांव हमें पागल कहता है, क्योंकि हम गांव जैसे नहीं हैं। हम पूरे गांव को पागल समझते हैं। हम पूरे गांव के लोगों को सोया हुआ समझते हैं। और सच यही है। यह इतनी भीड़ है, ये इतने लोग हैं, ये करीब-करीब सोए हुए और मरे हुए लोग हैं। इनकी आंखों में कोई जागा हुआपन नहीं है। इनके भीतर कोई बोध नहीं है। ये जीवन को देख नहीं रहे हैं, अन्यथा इनकी यह गति नहीं हो सकती थी, जो यह है।

यह दुनिया इतनी बदतर नहीं हो सकती थी, अगर इसमें जागे हुए लोग हों। यह दुनिया इतनी हिंसक नहीं हो सकती, इतनी क्रूर नहीं हो सकती, इतनी करप्टेड नहीं हो सकती, इतना अनाचार नहीं हो सकता, अगर लोग जगे हुए हों। इस दुनिया में इतनी दुर्घटनाएं और पीड़ाएं नहीं हो सकतीं, अगर लोग जगे हुए हों। इस दुनिया में इतना शोषण नहीं हो सकता, अगर लोग जगे हुए हों।

लेकिन सारे लोग सोए हुए हैं। और सोए हुए लोग जिस दुनिया को बनाएंगे, वह तो ऐसी दुनिया होगी ही। इसमें कोई शक भी नहीं है। वह दुनिया बदतर से बदतर होती जाएगी, अगर लोगों की संख्या और ज्यादा से ज्यादा सोती चली जाएगी।

हम करीब-करीब सोए हुए और मरे हुए लोग हैं। और उसकी वजह से सारी दुनिया में सडांध हैं। सारी दुनिया में मुर्दों का अधिकार है। सारी दुनिया में ऐसे लोग, जिनका जीवन से कोई संबंध नहीं है। वे लोग सारी गंदगी, सारी परेशानी, सारा उपद्रव पैदा कर रहे हैं।

धर्म चाहता है कि मनुष्य जाग जाए। और धर्म इसलिए एक तरह का पागलपन सिखाना चाहता है। जागा हुआ आदमी पागल मालूम होता है। क्राइस्ट पागल मालूम हुए, इसलिए सूली लगा दी। सुकरात पागल मालूम हुआ, इसलिए जहर दे दिया। इस मुल्क में भी लोगों को गांधी पागल मालूम हुए, इसलिए गोली मार दी। जागा हुआ आदमी पागल मालूम होगा। क्योंकि वह सामान्य लोगों से बिलकुल भिन्न दुनिया से संबंधित हो जाता है। जिसे आप जीवन कहते हैं, उसे वह मृत्यु कहेगा। जिसे आप सुख कहते हैं, उसे वह दुख कहेगा। जिसे आप समझ कहते हैं, उसे वह आत्यंतिक मूर्खता कहेगा। तो निश्चित ही वह पागल मालूम होगा।

संत फ्रांसिस हुआ असीसी में। वह जब भी किसी गांव में जाता, तो वह एक घंटा बजा कर जोर से चिल्लाता थाः कि आओ, मैं तुम्हें एक पागलपन सिखाऊं। तो लोग कहतेः पागलपन सिखाने आए हो? और वह असीसी का जो फकीर था, फ्रांसिस, वह कहताः अब तक जितने भी मेरे जैसे लोग आए हैं, सभी ने सिखाया है। क्योंकि पागलपन का अर्थ ही है कि तुमसे कुछ भिन्न हो जाना, तुमसे कुछ अलग हो जाना। और जो उस भांति अलग हो पाते हैं, वे ही केवल सत्य को जान पाते हैं, वे ही केवल जीवन के अर्थ को जान पाते हैं।

दुनिया में थोड़े से पागल हुए हैं जिन्होंने जीवन को जाना है। और दुनिया इन समझदारों से भरी हुई है जो कि जीवन को बिलकुल भी नहीं जानते हैं। इस समझदारी को छोड़ देना पड़ेगा, जिसे आप समझदारी समझ रहे हैं। यह समझदारी झूठी है। और इसके कोई आधार नहीं हैं। यह बिलकुल निराधार और बेमानी है। अगर यह समझदारी आपको मूर्खतापूर्ण मालूम होने लगे, यह समझदारी जिसको आप कहते हैं, यह जो आपकी दुनियादारी समझदारी है, अगर यह आपको मूर्खतापूर्ण मालूम होने लगे, तो ही आपके भीतर कोई प्यास पैदा हो सकती है। और यह तभी मालूम होगी जब इसमें दुख और मृत्यु दिखाई पड़े।

मृत्यु को देखना, मृत्यु से स्वयं को संबंधित कर लेना, प्राथमिक शर्त है परमात्मा की प्यास की। अगर ऐसा नहीं है, तो प्यास झूठी होगी। फिर आप गीता पढ़ें, कुरान पढ़ें, बाइबिल पढ़ें, सब पढ़ें- आपकी प्यास झूठी होगी। उसका कोई मतलब नहीं है। उस तरह पढ़ने वाले लोग हैं। उस तरह मंदिर और मस्जिद हैं। उनका कोई उपयोग नहीं है। जिसे जीवन अभी सार्थक मालूम हो रहा है, उसे मंदिर और मस्जिद सब व्यर्थ हैं, उनका कोई उपयोग नहीं है। उसे गीता कुरान सब व्यर्थ हैं, उनका कोई उपयोग नहीं है। जिसे जीवन मृत्यु दिखाई पड़े, उसके लिए नये अर्थ का संसार खुलना शुरू हो जाता है।

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अंतर्निहित चेतना ही परमात्मा है, मनुष्य वही सोच सकता है, जो इस ब्रम्हाण में घटित हो गया हो या होगा। आकांक्षाएं ही आविष्कारों की जन्मदाता हैं। पानी की प्यास तो ग्रंथियों द्वारा उत्पन्न होती है उसको तो पानी पीकर शांत किया जा सकता है, परन्तु आत्मा की प्यास परम आत्मा अर्थात "परमात्मा" (आत्मा की शिखर अवस्था) पर पहुँच कर ही शांत होती है इस जमीन पर बुद्ध हुए हैं, महावीर हुए हैं, क्राइस्ट हुए हैं, कृष्ण हुए हैं, राम हुए, मोहम्मद हुए। इन हजारों लोगों के मार्ग बस सांसारिक चेतना से अलग हटकर आत्मिक चेतना की ओर थे।