"मौत " एक क्रमिक विकास


जमीन पर बुद्ध हुए हैं, महावीर हुए हैं, क्राइस्ट हुए हैं, कृष्ण हुए हैं, राम हुए, मोहम्मद हुए। हजारों लोगों के करीब से वे निकले। लेकिन जिनके पास प्यास थी, वे उनके भीतर के पानी को पहचान सके। और जिनके भीतर प्यास नहीं थी, वे अपरिचित रह गए।
पानी हमेशा मौजूद है, लेकिन प्यास सबके भीतर मौजूद नहीं है। और प्यास कोई दूसरा मनुष्य पैदा नहीं कर सकता, प्यास आपको खुद ही पैदा करनी होगी।
कैसे प्यास पैदा होगी? अगर नहीं है तो प्यास कैसे पैदा होगी?
प्यास पैदा होती है पीड़ा से, पीड़ा के किसी अनुभव से। जीवन में बहुत पीड़ा है। और बहुत दुख है, लेकिन उस दुख को हम भुलाने के उपाय खोजते हैं। उस दुख से हम अपने भीतर पीड़ा को पैदा नहीं होने देते।
आपके पड़ोस में कोई मर जाए- रोज कोई मर रहा है लेकिन क्या किसी को मरते देख कर आपको तत्क्षण यह प्रश्न खड़ा होता है कि मैं भी मरूंगा ? अगर यह प्रश्न नहीं होता, तो आपके भीतर कभी प्यास पैदा नहीं होगी। आप रोज अपने चारों तरफ क्या देख रहे हैं? जो आप देख रहे हैं, अगर आपकी आंखें खुली हों, तो आपके भीतर एक अदभुत प्यास का जन्म हो जाएगा। जीवन को जानने की, जीवन को की, जीवन को जीतने की एक आकांक्षा पैदा हो जाएगी।
एक बहुत अदभुत फकीर हुआ, उससे किसी ने पूछा, उसका नाम था, बायजीद । उससे किसी ने पूछा कि तुम्हारी परमात्मा की तरफ आंखें कैसे उठीं? उसने कहा: जब मैंने जीवन में दुख देखा, तो मेरी आंखें परमात्मा की तरफ उठ गईं।
लेकिन हम जीवन में दुख देखने में समर्थ नहीं हो पाते। हम सारे लोग दुख से घिरे हैं, लेकिन दुख हमें दिखाई नहीं पड़ता। और जब दुख हमें दिखाई पड़ता है, हम कई तरकीबों से उसे भुला लेने की कोशिश करते हैं।
एक मेरे मित्र हैं, उनका युवा पुत्र गुजर गया। वे मेरे पास आए और उन्होंने मुझसे पूछा: क्या पुनर्जन्म होता है? मैंने पूछाः यह आप क्यों पूछते हैं? वे बोले कि मेरा युवा पुत्र गुजर गया है। मैं यह जानना चाहता हूं कि क्या पुनर्जन्म होता है? मैंने कहा: उसकी मृत्यु से जो दुख हुआ है, उसे भुलाने का उपाय खोज रहे हैं। अगर मैं कह दूं कि पुनर्जन्म होता है, आपका पुत्र मरा नहीं, उसकी आत्मा जिंदा है, तो आप तृप्त होकर वापस लौट जाएंगे। वह जो पुत्र की मृत्यु से जो आघात आपके ऊपर पहुंचा है, उसे आप झुठला लेने की, भुला देने कोशिश में लगे हैं।
वे एक साधु के पास गए। और उन साधु ने उनसे कह दियाः चिंता की कोई भी बात नहीं, मैं जानता हूं, तुम्हारे पुत्र का जन्म तो स्वर्ग में हो गया है। वे बहुत तृप्त वापस लौट आए।
मैंने उनसे कहा कि मृत्यु एक मौका थी कि उसमें आप जाग सकते थे, और प्यास पैदा हो सकती थी। उस मौके को आपने खो दिया।
हम रोज मौका खो रहे हैं। जीवन में वे ही समस्याएं हैं, अगर हम उन्हें गौर से देखें तो एक जागरण, एक प्यास, एक असंतोष पैदा हो सकता है। और अगर हम उन्हें झुठलाने की कोशिश करें, भुलाने की कोशिश करें, एक्सप्लेनेशंस खोजने की कोशिश करें और जिंदगी के हर मसले पर कुछ विचार करके शांत हो जाएं, तो जीवन हमारे भीतर उतने दंश को पैदा नहीं कर पाएगा, जो कि हमें जगा दे और हमारी नींद को तोड़ दे। नींद को तोड़ने के लिए जरूरी है कि जीवन के दुख का भार बहुत तीव्र हो जाए।
आपने देखा होगा--अगर सपना आप देखते हों, सुखद सपना देखते हों, तो सपना टूटना आसान नहीं होता। लेकिन अगर आप दुखद सपना देखते हों, कोई नाइटमेयर देखते हों, किसी पहाड़ से गिर गए हों, कोई पत्थर आपके ऊपर गिर गया हो, तो सपना ज्यादा देर नहीं चल पाता, वह टूट जाता है।
सपना केवल दुख में टूटता है। और जीवन में भी जो सोए हुए हैं, वे भी केवल दुख में ही जागते हैं।
दुख एक वरदान है, अगर उसे कोई देख पाए। अन्यथा दुख एक अभिशाप है, अगर कोई उसे भुलाने की कोशिश करे। और जीवन में दुख बहुत है। चारों तरफ सारा जीवन दुख से भरा हुआ है। लेकिन हम अपने छोटे-छोटे सुखों में दुख को भुलाने का उपाय कर लेते हैं और अपनी आंखें बंद कर लेते हैं। तब प्यास नहीं पैदा हो पाती।
फिर जो ईश्वर की और आत्मा की हम बातें करते हैं, वे सब बातें व्यर्थ होती हैं, वे हमारे भीतर कोई गहरी आकांक्षा पैदा नहीं करतीं। वह सब हमारी बातचीत होती है। हमारा संस्कार होता है, हमारी शिक्षा होती है, हमारी संस्कृति होती है। उन बातों को सीख गए हैं, उन बातों को दोहराते हैं। लेकिन उन बातों से हमारे भीतर कोई--कोई ऐसी आकांक्षा पैदा नहीं होती कि जीवन में क्रांति हो जाए।
क्रांति के लिए जरूरी है--अगर हम इस भवन में बैठे हुए हैं, अगर मुझे ज्ञात हो जाए कि भवन में आग लग गई है, आपको पता चल जाए कि भवन में आग लगी है, तो आप बाहर हो जाएंगे। उस वक्त आप किसी से भी नहीं पूछेंगे कि बाहर जाने का रास्ता कौन सा है? आप यह भी नहीं पूछेंगे कि बाहर कैसे जाऊं? आप यह भी नहीं पूछेंगे कि इतनी भीड़ है, मैं कैसे निकलूंगा? आप कुछ भी नहीं पूछेंगे, आप सिर्फ बाहर होने के प्रयास में लग जाएंगे। अगर आपको बोध हो जाए कि भवन में आग लगी हुई है।
अगर आपको दिखाई पड़ जाए कि संसार में आग लगी हुई है और जीवन दुख से घिरा है, तो आपके भीतर बाहर निकलने की और संसार के ऊपर उठने की आकांक्षा पैदा हो जाएगी। आपके भीतर एक क्रांति संभव हो जाएगी।
यह दुख कहीं से लाना नहीं है, वह चारों तरफ मौजूद है। मृत्यु कहीं से लानी नहीं है, उसकी कोई कल्पना नहीं करनी है, वह निरंतर मौजूद है और प्रतिक्षण घट रही है। सच तो यह है कि हम खुद भी प्रतिक्षण मरते जा रहे हैं। जैसे मैं रोज कहता हूं कि हम प्रतिक्षण मरते जा रहे हैं। अगर हम अपने पर भी विचार करें, तो हम पाएंगे, हम काफी मर चुके हैं। हर आदमी जन्म के बाद मर रहा है, और धीरे-धीरे मरता जा रहा है। जितने दिन आपके निकल गए हैं उतने ही आप मर चुके हैं। थोड़े-बहुत दिन और होंगे और आपकी यह मरण की क्रिया पूरी हो जाएगी और आप समाप्त हो जाएंगे।
महाराष्ट्र
में एक साधु था, एकनाथ। उसके पास एक व्यक्ति बहुत दिनों तक आया। और उस व्यक्ति ने अनेक दफा एकनाथ से बहुत से प्रश्न पूछे। एक बार उसने एक अजीब बात एकनाथ से पूछी। सुबह ही थी और एकनाथ अपने मंदिर में बैठे हुए थे। उस युवक ने आकर पूछा कि मैं आपको जानता हूं, बहुत दिन से जानता हूं, और आपको जान कर मुझे कई तरह के विचार मन में उठते कई प्रश्न उठते हैं। एक प्रश्न मैं हमेशा छिपा लेता हूं, पूछता नहीं हूं। वह मैं आज पूछना चाहता हूं।
एकनाथ ने कहाः क्या है? पूछो।
उस युवा ने कहा कि मैं पूछना चाहता हूं, आपका बाहर से तो जीवन एकदम पवित्र है, लेकिन भीतर भी पवित्रता है या नहीं? आप बाहर से तो एकदम ही ईश्वरीय मालूम होते हैं, दिव्य मालूम होते हैं। लेकिन भीतर क्या है? मैं भीतर के संबंध में कुछ पूछना चाहता हूं। भीतर आपके पाप उठते हैं या नहीं? भीतर आपके बुराइयां पैदा होती हैं या नहीं? भीतर आपके विकार उठते हैं या नहीं?
एकनाथ ने कहा कि मैं अभी-अभी बताता हूं। एक और जरूरी बात तुम्हें बता दूं, कहीं मुझे भूल न जाए। कल अचानक मैंने तुम्हारा हाथ देखा, तो मुझे दिखाई पड़ा कि तुम्हारी मृत्यु करीब आ गई है। सात दिन बाद तुम मर जाओगे । तो यह मैं तुम्हें बता दूं और फिर तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दूं कि कहीं मुझे भूल न जाए, इसलिए मैं जल्दी बता दूं। एकनाथ ने कहाः अब पूछो कि तुम क्या पूछते हो?
वह युवक बैठा था, खड़ा हो गया। उसने कहा कि मौका मिला तो मैं कल आऊंगा। उसके हाथ-पैर कंपने लगे।
एकनाथ ने पूछाः इतनी जल्दी क्या है? सात दिन हैं, बहुत हैं। इतनी घबड़ाहट क्या है? और मरना तो सभी को पड़ता है।
लेकिन वह युवक अब एकनाथ की बातें नहीं सुन रहा था। उसने पीठ फेर ली और वह मंदिर के नीचे उतरने लगा। अभी जब आया था तो पैरों में एक बल था, एक शक्ति थी, एक सामर्थ्य था। अब जब लौट रहा था तो दीवाल का सहारा लिए हुए था। जिसकी मौत सात दिन बाद हो, वह बूढ़ा हो ही गया। उसके पैर कंपने लगे सीढ़ियों पर। वह रास्ते पर जाकर गिर पड़ा। बेहोश हो गया। लोगों ने उसे उठाया और घर पहुंचाया। उसके प्रियजन, उसके मित्र इकट्ठे हो गए, सब तरफ खबर फैल गई कि वह आदमी मरने के करीब है। सात दिन बाद उसकी मृत्यु आ जाएगी।
सातवें दिन संध्या को जब सूरज डूबने को था, तो सारे घर के लोग रो रहे थे। पड़ोसी इकट्ठे थे और वह युवा बिस्तर पर लेटा हुआ था। एकनाथ उसके घर गए। वे जब अंदर पहुंचे, तो वहां मौत का पूरा का पूरा वातावरण था। सारे लोग उनको देख कर रोने लगे। एकनाथ ने कहा: रोओ मत, मुझे जरा अंदर ले चलो। वे भीतर गए और उस व्यक्ति को उन्होंने हिला कर पूछा कि मेरे मित्र, एक बात पूछने आया हूं। सात दिन कोई पाप तुम्हारे भीतर उठा ? कोई बुराई, कोई विकार ? उस आदमी ने बहुत मुश्किल से आंखें खोलीं और उसने कहा कि आप भी एक मरते हुए आदमी से मजाक करते हैं!
तो एकनाथ ने कहाः तुमने भी मरते हुए आदमी से मजाक किया था ! एकनाथ ने कहा: तुम्हारी मौत अभी नहीं आई है, तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दिया है।
जिसे मौत दिखाई पड़ने लगे उसके भीतर पाप उठने अपने आप विलीन हो जाते हैं। विकार शून्य हो जाते हैं। और जिसे मौत दिखाई पड़ने लगे उसके भीतर एक क्रांति हो जाती है। उसकी संसार के प्रति पीठ हो जाती है और परमात्मा की तरफ उसका मुंह हो जाता है।
एकनाथ ने कहा: तुम्हारी मौत अभी आई नहीं, तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दिया है। तुम उठ आओ, घबड़ाओ मत। और एकनाथ ने कहाः सात दिन बाद मौत हो, या सात वर्ष बाद, या सत्तर वर्ष बाद, क्या फर्क पड़ता है? मौत का होना ही पर्याप्त है। दिनों की गिनती से कोई फर्क नहीं पड़ता है। कि कोई फर्क पड़ता है? सात दिन बाद मौत हो या सत्तर दिन बाद, क्या फर्क पड़ता है? मौत का होना ही अर्थपूर्ण है। दिनों की गिनती कोई अर्थ नहीं रखती। एकनाथ ने कहाः मृत्यु है, जिस दिन यह मुझे पता चला, उसी दिन जीवन में क्रांति हो गई। उसी दिन मैं दूसरा आदमी हो गया।
हम सारे लोगों को यह पता नहीं है कि मौत है। हालांकि हम देखते हैं कि मौत घटित होती है, लेकिन हमें पता नहीं है कि मौत है। अगर हमें पता हो कि मौत है, तो हमारे भीतर जीवन को जानने की प्यास पैदा हो जाएगी। जो इस जीवन को ही जीवन समझ रहे हैं, उनके भीतर जीवन को जानने की प्यास कैसे पैदा हो सकती है? और जो इस जीवन को ही जीवन मान रहे हैं, वे वास्तविक जीवन को पाने के लिए असंतुष्ट कैसे हो सकते हैं?
यह जीवन नहीं है, यह मृत्यु की ही लंबी क्रिया है। जब तक यह स्पष्ट बोध हमारे भीतर न बैठ जाए, तब तक परमात्मा की दिशा में हमारे कदम उठ नहीं सकते। तब तक उन कदमों का उठना असंभव ही है। और सच में ही अगर हम विचार करें तो इसे जीवन कैसे कह सकते हैं?
मैं जिस दिन पैदा हुआ--जैसा मुझे दिखाई पड़ता है-- मैं उसी दिन से मरना शुरू हो गया हूं।
मौत कोई आकस्मिक एक्सीडेंट नहीं है, कोई दुर्घटना नहीं है, एक क्रमिक विकास है, एक ग्रोथ है। मैं जिस दिन से पैदा हुआ, मेरी मौत विकसित हो रही है। मेरे भीतर मौत घनी होती जा रही है। एक दिन मौत अपने पूर्ण बिंदु पर पहुंच जाएगी। आप समझेंगे कि उस दिन मौत हुई। मैं आपसे कहना चाहता हूं, मैं उसी दिन मरना शुरू हो गया जिस दिन पैदा हुआ।
जन्म का दिन और मृत्यु का दिन अलग-अलग नहीं है। जन्म का दिन ही मृत्यु का दिन है। हम क्रमशः मरते जाते हैं, लेकिन इसका हमें बोध नहीं है। और हम सोचते हैं मौत 'कभी' आएगी, इसलिए निश्चित होते हैं। मौत प्रतिक्षण है। और जो कभी आने के खयाल में हैं, वे गलती में हैं। और कभी यह विचार भी हम नहीं करते कि अगर हम जीवित होते तो मृत्यु आ कैसे सकती थी? यह कभी आपने खयाल किया कि अगर आप जीवित होते तो मौत आ कैसे सकती थी? जीवन और मृत्यु तो विरोधी बातें हैं।
सफेद रंग सफेद रंग है, काला रंग काला रंग है। मृत्यु मृत्यु है, जीवन जीवन है। जीवन कभी भी मृत्यु नहीं हो सकता और मृत्यु कभी जीवन नहीं हो सकती है। और इसीलिए जब अंत में मृत्यु आती है, तो समझ लेना चाहिए कि जिसे हमने जन्म समझा था, वह जीवन का प्रारंभ नहीं था--मृत्यु का ही प्रारंभ था। क्योंकि जो प्रथम में होता है वही अंत में विकसित हो जाता है। जो बीज में होता है वही वृक्ष बन जाता है। मृत्यु अंतिम वृक्ष है, तो जन्म में मृत्यु का बीज छिपा होगा। जन्म जीवन का प्रारंभ नहीं है, वह मृत्यु का ही प्रारंभ है।
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Kartik Sel
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अंतर्निहित चेतना ही परमात्मा है, मनुष्य वही सोच सकता है, जो इस ब्रम्हाण में घटित हो गया हो या होगा। आकांक्षाएं ही आविष्कारों की जन्मदाता हैं। पानी की प्यास तो ग्रंथियों द्वारा उत्पन्न होती है उसको तो पानी पीकर शांत किया जा सकता है, परन्तु आत्मा की प्यास परम आत्मा अर्थात "परमात्मा" (आत्मा की शिखर अवस्था) पर पहुँच कर ही शांत होती है इस जमीन पर बुद्ध हुए हैं, महावीर हुए हैं, क्राइस्ट हुए हैं, कृष्ण हुए हैं, राम हुए, मोहम्मद हुए। इन हजारों लोगों के मार्ग बस सांसारिक चेतना से अलग हटकर आत्मिक चेतना की ओर थे।